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ग़ज़ल
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
ये क्या हुआ कि मिरे लब पे इल्तिजा भी नहीं
हबीब अहमद सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
बन-सँवर कर जो वो बाज़ार निकल जाते हैं
देखने वालों के जज़्बात मचल जाते हैं